रिश्तों की उम्र कौन माप पाया है?
कुछ सदियों ज़िंदा रहते हैं, हमें शेरों-कहानियों में मिलते हैं। कुछ पूरी ज़िन्दगी अपने पैरों पर खड़े होने में लगा देते हैं, कुछ पूरी ज़िन्दगी हर दिन जीते हैं। हर एक की अपनी उम्र होती है। हाँ, कहानियां सबकी एक ही लगती है मुझे।
काफ़ी रिश्तों को क़रीब से देखा है मैंने। पाया है की जहां ख़ुशी है, रंग हैं, वह सब लोगों के अपने हैं। पर जहां कलह है, दुःख, रुस्वाई है, उन सबकी एक सी पहचान होती है। ऐसा लगता है की मानों एक को देख लिया हो, तो सबको देख लिया। हम उन्ही मसौदों पर रूठते हैं, वैसे ही बेगैरद लहज़े से बात करतें हैं, उसी दर्द से बिछड़ते हैं, वही आंसू रोते हैं… सब वही है, हमने कुछ नहीं सीखा है। इन्ही उलझनों से गुज़रने का नाम हमने ज़िन्दगी कर दिया है। यही चेहरे, यही मोड़, यही सब चलता रहता है, एक के बाद एक, दोबारा…
इन्ही किस्सों, कहानियों, दोस्तों, और लोगों के ग़म को देखा है मैंने, और उसे संजो के ये कविता लिखी है। उमीद है कुछ पसंद आएगी।
दोबारा
फिर आ गए इस कमरे में,
पर्दे खोल दिए, धूप को छिड़क दिया,
फिर रोशन हुए मेरे साज़ और सामान,
जिन पर तुम्हारी यादों की धूल,
जमी है आज भी अपने नामों के अक्षरों में,
जो तुमने तराशे थे…
यहीं से गुज़रे थे कभी तुम,
हाथ छुड़ाकर बस ऐसे ही,
न कोई वजह, न लौटने का वादा दिए,
बस खो गए थे अंधेरों में,
कोई आवाज़ नहीं हुई, सन्नाटा रहा था,
हाँ, मेरे मन में कहीं तुम्हारी हंसी गूँज रही थी…
मैं थमी रही इंतज़ार में,
यह समझने की चाह में,
की क्यूँ बदल गया रुख हवा का,
कैसे बातें यूं राख हो गयी,
और उन लफ़्ज़ों और नग्मों, जिनसे तुम्हें भी मोहब्बत थी,
की कसमों को तुमने यूं लावारिस कर दिया…
बिखरे सपनों के शीशे दिल में दबा लिए,
जो खून बहा भी तो आँखों से नहीं,
सुन्न-सी मैं कुछ ज़िन्दगी बढ़ाने लगी,
उस कमरे में अँधेरा कर,
तुम्हारी यादों को धूल बनते छोड़,
के आ गए तुम, दोबारा…
फिर वही मुलाकातें थी,
हड़बड़ाई हुई, बेचैन, इस शहर सी,
फिर वही किस्से शेरों-नज़्मों के,
पर घाव जल रहे थे संग चलने के पसीने से,
कई मेरे शिकवे थे, कहीं तुम्हारी वजहें थी,
उस धूल के कमरे की बैठक कुछ रोशन हुई थी…
अब साथ हैं फिर भी एक दायरा है,
जो समझौते पार नहीं कर सकतीं,
अब ख़्वाब भी नहीं दिखते तुम्हारे नाम के,
जो पहले हर रात मुझे लोरियाँ सुनाते थे,
उम्मीद कुछ गुज़र सी गई है, मसले भी अब इतने नहीं चुभते,
शायद अब भी कुछ मोहब्बत है, शायद …
यह जानती हूँ मैं की मंज़िल कोई नहीं है,
इस धूप के मुरझाने के मौके ही ज़्यादा होंगे,
टूटी लकीरों को आखिर कौन पूरा जोड़ पाया है,
किस्से मोड़ों पर अक्सर मर से ही जाते हैं,
अब बची साँसों को तुम्हारे वादों की उमर दे दी है मैंने,
देखें ज़रा कैसी ज़िन्दगी मिलती है…
फिर बिखरेंगे हम, फिर धूल की बयार,
बनके साँस बहेगी इन रगों में,
तन्हाई फिर अपनी आग़ोश में समा लेगी,
मैं फिर उसी कमरे में मिलूंगी खुद से,
तुम अनजाने किसी ख्वाब की तलाश में,
चल दोगे अफ़क़ की ओर, दोबारा…
Still here? I’m humbled. Thank you!
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