कुछ दिनों पहले एक ख़याल आया था जो कविता में बुन सकता था। यूं तो यह ख़याल अक़्सर धुंआ हो जाते हैं, यह रह गया कहीं।
फिर अगले ही दिन कुछ बेवजह, या शायद यूं ही मंज़ूर हो उसे जिसकी मर्ज़ी चलती है, मैं एक पसंदीदा कविता से आन मिला। लॉर्ड अल्फ्रेड टेन्नीसन ने लिखी थी, और मैंने हमेशा माना है की उसकी आखरी पंक्ति जीवन का आधार भी है और उद्देश्य भी।
जो मेरे ज़हन में था और जो टेन्नीसन के ज़हन में रहा होगा, दोनों ख़याल कहीं जाकर मिलते से लगे। जो लगा सो यह कविता लिखनी शुरू की। आशा है की यहां आपको भी मिलते नज़र आएंगे…
और हाँ, अगर आप उस कविता को पहचान गए हैं (और गर साहित्य और कविता में ज़रा रूचि है तो न पहचानने की कोई वजह भी नहीं), तो कमेंट्स में बताइयेगा!
मुलाक़ात
आज नज़र आए थे तुम,
एक हल्की मुस्कान भी थी,
जाने क्या राज़ छुपाए रखे थे तुमने मन में,
जाने किस किस्से की याद में खुश हुए थे,
कुछ धीमी रफ़्तार बढ़ रहे थे लेकिन,
मानो थक गए इतने बरसों के बाद,
कुछ बाल भी रूठकर चले गए थे परदेस,
शायद यह वादा करके की लौट के आएंगे कभी,
पर तुम्हारी आँखों में आज फिर वो रौशनी थी,
जो बीते सालों नज़र आती थी अमावस रातों में,
और आस्मां से ज़्यादा सितारे उनमें,
फिर ख्वाब बन चमकते दिख रहे थे,
चेहरे पर झुर्रियां थी, हाँ, पर वो भी,
तुम्हारी बातों की तरह ज़िद्द पर अड़ी थीं,
और माथे की कुछ उभरी लकीरें,
बड़ी शिद्दत से आज भी मुक्कदर तलाश रही थीं,
हाथों में कम्पन था हल्का-सा,
पर इरादे फिर नसों में बहते से लगे,
कदम यूं बढ़ रहे थे की अरसे बाद,
उन्हें मंज़िलों का पता कोई बता गया हो,
ज़िन्दगी की बारिशों से लड़कर भी,
कुछ चिंगारी बचाए रखी है,
आज आईना देखा बड़े दिनों बाद तो,
अच्छा लगा उससे रु-ब-रु हो कर…
Still here? I’m humbled. Thank you!
What did you think of this piece? I’m always eager to get some feedback so please drop a comment, a rating, or a like below.
And, if you loved it, please share it with others connosieurs. 🙂
Leave a comment